जिंदगी है एक सजा..
फिर क्या है..
जीने की वज़ह..
पल दो पल का सुख..
कुछ सुंदर..
खूबसूरत नजारे..
दुख भी हैं..
बहुत बहुत सारे..
कुछ रिश्ते..
खटे मीठे प्यारे..
कुछ पराये से..
जैसे अपने हैं हमारे..
कुछ दिल के पास..
मगर बन्द हैं..
मन के द्वारे..
जिन्दगी से इनका ताल मेल..
लगता है अजीब खेल..
ईश्वर तूने..
जिन्दगी सा अनूठा..
उपहार दिया..
साथ में बहुत सारा..
प्यार दिया..
जिन्दगी के लिये..
यह दुनिया बना दी..
सजाया आसमान..
और ये सारा जहान ..
हर जगह हमने देखा..
इस जिन्दगी का लेखा..
हे ईश्वर तेरी कुदरत ..
और इसके राज..
ये तेरे बनाये..
रात दिन..
कल और आज ..
जिन्दगी से..
समय का जोड़ तोड़..
समय बितने पर..
आते जिन्दगी में..
कई मोड़..
बचपन जवानी और ..
बुढ़ापा और डर ..
मर जाने का सताता..
जिन्दगी क्यों..
लगती है सजा..
फिर क्या है जीने की वज़ह..
बचपन से पचपन का सफ़र..
पहले उमंग जोश से भरा..
फिर चुपके से..
कुदरत ने ..
जोश उमंग को कम करा..
आई अनचाही बीमारियाँ..
दवाओं से भरी अलमारियां..
जिन्दगी के फलसफे में..
ईश्वर की अहम भूमिका..
ईश्वर ही ने तो..
पहले सब कुछ दिया..
और चुपके से..
वापिस लिया..
वो जवानी की अकड ..
और मस्ती..
कहां गयी पता नहीं..
अब जिन्दगी सता रही..
क्यों कि जिंदगी है सज़ा..
फिर क्या जीने की वज़ह.
ईश्वर तुम याद आते हो..
करते तेरी अर्चना..
समझ ना आई तेरी रचना..
काहे को तूने बनाई..
जिन्दगानी और ..
और दुनिया की कहानी..
क्यों लगती है..
ज़िंदगी बेइमानी..
क्यों दी जिन्दगी की सज़ा..
ढूंढते हैं जीने की वज़ह..
याद आता है एक गाना..
जो है पुराना..
कि दुनिया बनाने वाले..
क्या तेरे दिल में समायी..
तूने काहे को..
ये दुनिया बनाई..
काहे बनाये ये माटी के पुतले..
चेहरे कुछ काले..
कुछ मुखड़े उजले ..
काहे लगाया दुनिया का मेला..
मैं पाता हूं..
खुद को अकेला..
तब ही लगती है..
जिंदगी एक सज़ा..
फिर क्या जीने की वज़ह..!!
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कविता की विवेचना:
जीने की वज़ह/Jine ki vajah कविता जिन्दगी की उहापोह और
खुशी दुख तकलीफ कई उतार चढाव को महसूस कर लिखी गई है.
इंसान की जिन्दगी की कोई तो वज़ह ईश्वर ने सोची होगी तब ही यह दुनिया बनाई और इंसान बनाया, मगर वो वज़ह इंसान को क्यो आज तक नहीं पता.
इंसान की ज़िंदगी का सिलसिला पैदा होना बचपन जवानी और बुढ़ापा और अंत में मर जाना, इस बीच क्या काम इंसान ने किया जो कि बहुत जरूरी था जिसके लिये ईश्वर ने यह जिन्दगी दी, काम अंत तक पता नहीं चला और इंसान मर गया.
या कि इंसान वो ईश्वर का काम अनजाने में ही कर गया जो कि उसे स्वयं पता नहीं चल गया ईश्वर की माया ईश्वर ही जाने.
"जीने की वज़ह "कविता के माध्यम से लेखक अपने जीने की वज़ह तलाश रहा है, मगर वज़ह अभी तक तो नहीं मिली, सांसे चल रहीं है जिंदगी भी चल रही है एक सज़ा की तरह, मगर लेखक जिंदा है और अपने जीने की वज़ह जानने को उत्सुक है, शायद लेखक को जीने की वज़ह मिल जाये तो अच्छा है.
..इति..
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